जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
भूमध्य सागर के तट पर
किसका नाम पहले लूँ? पिकासो का या कोलंबस का? वैसे कोलंबस के बारे में मतभेद है। बहुत से लोग यह दावा करते हैं कि कोलंबस इटली का था। कोई कहता है कि कोलंबस स्पैनिश थे। वार्सेलोना में भूमध्यसागर के तट पर, जहाँ कोलंबस की मूर्ति खड़ी है, उसके नीचे खड़े-खड़े मेरे मन में सवाल जागा। कोलंबस अपनी दाहिनी वाँह उठाकर कुछ दिखा रहे हैं। असल में, उनकी बाँह को अमेरिका की ओर इशारा करना चाहिए था, लेकिन उनकी बाँहें अमेरिका की बिल्कुल उलटी तरफ इशारा कर रही थीं, इटली की तरफ! कोलंवस क्या यह पूछ रहे हैं कि मुझे स्पेन की राह पर क्या रखा है? वह रहा इटली, मेरा देश! असल में, उनकी मूर्ति स्पेन के बिल्कुल दूसरी छोर पर, एटलांटिक के तट पर स्थापित की जानी चाहिए थी। कोलंबस ने तो भूमध्य सागर की राह से अमेरिका का आविष्कार (?) किया नहीं था। वैसे इटलीवासी चाहे जितना भी दावा करें कि कोलंबस उनके थे, मेरा ख्याल है कि कोलंबस स्पैनिश ही थे। खैर, पिकासो के बारे में कोई मतभेद नहीं है कि वे स्पैनिश थे या नहीं। न्यालागा में उनका जन्म हुआ। बेटे की उम्र जब चौदह साल थी, पिकासो के माँ-बाप बार्सेलोना चले आए थे। इससे भी पहले, कुल बारह-तेरह वर्ष की उम्र में ही, लैंडस्केप बनाने में पिकासो का हाथ मँज चुका था। पिता कला-शिक्षक थे। इस मामले में पिकासो को सहूलियत थी। पिकासो ने उसी उम्र में, अपनी माँ की तस्वीर बनाते हुए, उनका जो महीन श्वेत परिधान आँका था, वह शायद सन् अट्ठारह सौ बयानबे का समय था, उसी वक्त उनकी पेटिंग में जो ट्रांसपेरेंसी यानी पारदर्शिता झलकती है, वैसी पारदर्शिता मैंने किसी और की पेटिंग में कभी नहीं देखी। बार्सेलोना में, अपने घर की छत पर बैठे-बैठे, उस बित्ते-भर के छोकरे ने भूमध्य सागर से कहीं ज्यादा नागरिक जीवन की तस्वीरें आँकी हैं। शुरू-शुरू के दौर में उनकी तस्वीरों का रंग-ढंग बिल्कुल स्पष्ट समझ में आता है। ये रंग अकादमिक थे। ईसू और मेरी की तस्वीरें! उनमें सफेद और लाल रंगों का अतिशयता से इस्तेमाल किया गया है। बीच में ऑब्जेक्ट को बिठाया गया है। वैसे बाद में, यह शैली पलट गई। उनके लैंडस्केप में भी गाँव और पहाड़ चला आया। नीले और गुलाबी समय की चंद तस्वीरें! क्यूबिज चर्च और चश्माधारी दोस्त, सेबरेटेसे का चेहरा बार-बार आँका गया है। ये सब बार्सेलोना म्यूजियम में संगृहीत हैं। मेरे लिए म्यूजियम परिदर्शन के लिए स्पेशल इंतजाम किया गया था। मतलब नो पब्लिक! मैं वह म्यूजियम अकेली ही देखूगी। मेरे साथ म्यूजियम के डायरेक्टर और मेरे अंगरक्षक! खैर, यह सब तो अतिशयता थी। मुझे लेकर यूरोप की ये तमाम अतिशयता अब मुझे असहनीय लगती है। खैर, पैरिस के ल्यूवर के प्राइवेट परिदर्शन के बाद, बार्सेलोना का पिकासा म्यूजियम तो नगण्य.था। बहरहाल मैंने तो उन लोगों से साफ-साफ कह दिया है कि भइये, मैं ठहरी अति मामूली इंसान! मैं सड़कों पर इंसानों की तरह, अपने दोनों पैरों पर चलना चाहती हूँ। मुझे अपने आगे-पीछे इतने सारे पहरेदारों की जरूरत नहीं है। यहाँ कोई मेरा खून नहीं करेगा। जो लोग खून करने पर आमादा हैं, वे लोग ढाका में बैठे चीख-चिल्ला रहे हैं। बहरहाल उन लोगों ने यानी आयोजकों ने मेरे लिए सड़क-विहार का इंतजाम तो किया, लेकिन पहरेदार नहीं हटाए गए। ला रंवला की सड़क पर मैं महासुख से चलती-फिरती रही।
पहले, अर्से पहले यहाँ नदी मौजूद थी, अब समुंदर-बरावर एक लंबी पगडंडी भर रह गई है। बीचोबीच चलने-फिरने के लिए प्रशस्त पथ, दोनों ओर गाड़ियों के आने-जाने के लिए संकरे-संकरे लेन। शहर में दो ला रंबला है। एक, फूलों और पंछियों की दुकानों से पटा हआ! दूसरी जगह दकानें वगैरह तो नहीं हैं मगर राहगीरों की भीड़, आधी रात तक गुलज़ार रहती है। काफी कुछ आमस्टरडम के रास्तों जैसा! लोगों की खचाखच भीड़ लगी रहती है और गायकों के झुंड, सामने टोपी या बर्तन रखकर गीत गाते हुए! मतलब टोपी या बर्तनों में पैसे फेंकें। ये जिंदा मूर्तियाँ बेहद अद्भुत होती हैं! अडिग खड़ी रहती हैं! नो हिलना-डुलना! किसी-किसी के पैरों के करीब कैसेट के गीत गूंजते हुए! इसी ला रंबला में आगे-पीछे से बिल्कुल दूधिया सफेद रंग में रँगे, एक शख्स को, मैं पत्थर की मूरत समझने की भूल कर बैठी थी। पूरे दस मिनट तक एकटक निहारते रहने के बाद, मेरी समझ में आया कि वह जिंदा इंसान है। बार्सेलोना की सड़क पर मुग्ध होने लायक मैंने एक अनोखी चीज़ भी देखी। वह भी ला रंबला में नहीं, गवर्नमेंट हाउस के बिल्कुल सामने! कड़कड़ाती, बर्फीली सर्दी में, लड़के-लड़कियाँ सड़क पर तंबू गाड़े, पोस्टर टाँगे धरने पर बैठे थे। क्यों? इसलिए कि वे नए बजट को नहीं मानते। वजह? इसमें तीसरी दुनिया की सहयोग-राशि कम कर दी गई है। अगले ही पल मैंने महसूस किया कि खुशी की एक लहर, मेरी रीढ़ से होती हुई समूचे तन-बदन में फैल गई है और जीने के अंदर सैकड़ों गुलाबों की खुशबू महक उठी है। यानी इस धरती पर अभी भी ऐसे इंसान बसते हैं, जो दूसरे-दूसरों इंसानों के मंगल की माँग करते हुए, अपना घर-द्वार छोड़कर, तंबू में जिंदगी गुज़ारते हैं। ये लोग दरिद्र देशों के लिए इस साल की सरकारी सहयोग-राशि 0.5 प्रतिशत से बढ़ाकर, पिछले साल की तरह 0.7 प्रतिशत करने की माँग कर रहे हैं।
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